बाल कहानी : माँ तुझे शत-शत प्रणाम
कहते हैं ईश्वर हर जगह स्वंय भैतिक रूप में नहीं रह सकता अतः उसने माँ बनाई। माँ के कदमों में जन्नत होती हैं। ‘माँ’ शब्द में सारे संसार का स्नेह छलकने लगता है। उसके दरबार में सारे गुनाह माफ हो जाते हैं। त्याग की मूर्ति है माँ। हम जिसे भी सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, उसके आगे माँ शब्द लगा देते हैं….जैसे भारत माँ, देवी माँ। दुनिया का हर बच्चा जन्म लेते ही पहला शब्द माँ ही पुकारता है।
एक बार जब स्वामी विवेकानंद से किसी नौजवान ने कहा-‘स्वामीजी कहते हैं कि माँ का कर्ज चुकाना बहुत कठिन है, यह कौन सा कर्ज है?’
स्वामीजी- ‘क्या तुम्हें यह अनुभव करना है?’
युवक-‘हाँ!’
स्वामीजी-‘इस पत्थर को अपने पेट पर बाँध कर आज आॅफिस चले जाओ। शाम को मुझसे आकर मिलना।’
पेट पर ढाई- तीन किलो का पत्थर बाँध कर काम करते हुए, वह युवक दिन भर में बेहाल होकर स्वामीजी के पास शाम को पहुँचा।
स्वामीजी- ‘तुमने यह पत्थर कब बाँधा था?
युवक- ‘आज सुबह ही।’
स्वामीजी- ‘एक ही दिन में तुम इतने बेहाल हो गए। तुम्हारी माँ ने तो कई महीनों तक तुम्हें पेट में रख कर सारे कार्य किए….क्या उसने कभी शिकायत की?’
हमारे ऊपर हमारी माँ के अनन्त उपकार हैं। बचपन में माँ हमें बड़े यत्न से हर कष्ट उठा कर पालती है। अगर बुढ़ापे में हम उसका ख्याल नहीं रखेंगे तो हमारे भाग्य में ऐसी ज्वाला भड़केगी कि हमें स्वाहा कर देगी।
जो व्यक्ति अपनी माँ की अच्छी तरह से देख-भाल न करे, उससे बात भी न करे, ऐसे व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है। माँ को सताने से पहले सोच लेना कि उसने नौ महीनों तक तुम्हारा बोझ उठाया है, अपने रक्त और मांस से तुम्हें सींचा है, और अपनी जान पर खेल कर तुम्हें इस संसार में जन्म दिया है।
माँ को सोना-चांदी नहीं, तुम्हारा स्नेह भरा स्पर्श चाहिए। माँ पुण्य से मिलती है। आज के जमाने में माँ बच्चों के लिए भार बन गई है, क्यों? माँ की आँखों के आँसू में तुम्हारे सारे पुण्य कर्म बह जाएँगे। देवा माँ के चुंदरी चढाएँ और घर की माँ को रुलाएँ तो क्या मंदिर की माँ प्रस्न्न होगी?
मंदिर की देवी को तो तुमने कभी देखा नहीं, परंतु क्या उसकी सूरत तुम्हारी माँ से नहीं मिलती है? एक कवि ने कहा हैः-
उसको नहीं देखा हमने कभी, पर इसकी ज़रूरत क्या होगी,
ऐ माँ तेरी सूरत से अलग, भगवान की सूरत क्या होगी।
माँ का हृदय ही तुम्हारी ज़िंदगी का पहला मंदिर था। उसके बलिदानों की कीमत कुबेर श्ी नहीं चुका सकता। माँ के आँचल तो षीतल जल का वह सागर है, जहाँ आपके सारे दुख दर्द डूब जाते हैं। उसके ममत्व की एक मीटी बूंद में अमृत का सागर समाया रहता है।
संसार के सारे महामानव अपनी माताओं के सपनों को साकार करने में सफल हुए।
साधु वासवानीजी ने भी अपनी माँ की आज्ञा कभी नहीं टाली। उनकी माँ के मन की तमन्ना थी कि उनका बेटा खूब धन कमाए, ऐश्वर्या के साधन जोड़े, विवाह करे और उसे सारे सुख दे।
माँ की इच्छा को आदर देते हुए उन्होंने अध्यापन के क्षेत्र में कदम रखा और एक काॅलेज के प्रिंसिपल बन गए।
माँ जब तक जिंदा रहीं वे माँ की सेवा करते रहे। माँ ने भी अपनी अंतिम साँस के पहले अपने बेटे को पूर्ण ज्ञानी बनने का विलक्षण आर्शीवाद दिया।
गांधीजी के जीवन पर भी उनकी माँ का बहुत प्रभाव था। उन्होंनेे विलायत जाने से पहले अपनी माँ पुतलीबाई को यह वचन दिया था कि वे कभी शराब और मांसाहार नहीं करेंगे।