आज हम श्रीकृष्ण की कृपा और त्याग से संबंधित शब्दो के बारे में, बताएँगे
1 अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्रप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं। सभी सुख साधन से सम्पन्न व्यक्ति के बारे में लोग यही कहते हैं कि भगवान की उसके ऊपर बड़ी कृपा है। जो उसके लिए इतना सब कुछ दिया। क्या
वास्तव में कृपा इसी का नाम है? जरा विचार कर लेते हैं।
कृपा अर्थात बाहर की प्रप्ति नही अपितु भीतर की तृप्ति है। किसी को भौतिक सुखों की प्राप्ति हो जाना यह कृपा हो न हो मगर किसी को वह सब कुछ प्राप्त न होने पर भी भीतर एक तृप्ति बनी रहती है। यह अवश्य मेरे गोविंद की कृपा
है रिक्तता उसी के अन्दर होगी जिसके अन्दर श्रीकृष्ण के लिए कोई जगह नही है।
जिस हृदय में श्रीकृष्ण हो वहां भला रिक्तता कैसी? वहां तो आनंद ही आनंद होता है। आपके पुरुषार्थ से और प्रारब्ध से आपको प्राप्ति तो संभव है। मगर तृप्ति नहीं वह तो केवल और केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। अतः भीतर की
तृप्ति भीतर की धन्यता और भीतर का अहोभाव यही उस ठाकुर की सबसे बड़ी कृपा है।
2 कई बार प्राप्ति से नही अपितु आपके त्याग से आपके जीवन का मूल्यांकन किया जाता है। माना कि जीवन में पाने के लिए बहुत कुछ है मगर इतना ही पर्याप्त नहीं क्योंकि यहां खोने को भी बहुत कुछ है। बहुत चीजें जीवन में
अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए मगर बहुत सी चीजें जीवन में त्याग भी देनी चाहिए।
प्राप्ति ही जीवन की चुनौती नहीं त्याग भी जीवन के लिए एक चुनौती है। अतः जीवन दो शर्तों पर जिया जाना चाहिए। पहली यह कि जीवन में कुछ प्राप्त करना और दूसरी यह कि जीवन में कुछ त्याग करना।
एक जीवन को पूर्ण करने के लिए आपको प्राप्त करना ही नही अपितु त्यागना भी है। और आत्म चिंतन के बाद क्या प्राप्त करना है और क्या त्याग करना है? यह भी आप सहज ही समझ जाओगे।
एक फूल को सबका प्रिय बनने के लिए खुशबू तो लुटानी ही पड़ती है।