जब कोई आपकी प्रशंसा न करे मेहनत करते रहें कुछ काम की बातें, आज हम प्रशंसा शब्द के बारे आपको बताएँगे
1 राधे राधे ना होगा कभी क्लेश मन को तुम्हारे, जो अपनी बड़ाई से बचते रहोगे । चढ़ोगे सभी के हृदय पर सदा तुम , जो अभिमान गिरि से उतरते रहे हैं।
खुद की प्रशंसा सुनने के साथ साथ दूसरो की प्रशंसा करने का अवसर कभी मत छोड़ो । स्वयं की ज्यादा प्रशंसा सुनने से अहम पैदा होता है और ज्यादा सम्मान प्रगति को अवरूद्ध कर देता है ।
भगवान श्रीकृष्ण का यही गुण था कि उन्हें अच्छाई शत्रु में भी नजर आती थी तो उसकी प्रशंसा करने से नही चूकते थे। कर्ण की दानशीलता और शूरता की कई बार उन्होंने समाज के सामने सराहना की ।
दूसरों की प्रशंसा से आपको उनका प्यार और सम्मान सहज में ही प्राप्त हो जाता है। राजा बलि की प्रशंसा करके भगवान वामन ने तो तीन लोक सहज में प्राप्त कर लिए थे। तो क्या आप ढाई अक्षर का प्रेम प्राप्त नही कर हो।
2 सेवा और त्याग दैवीय गुण अवश्य है मगर सेवा और त्याग का अभिमान ही जीवन का सबसे बड़ा रोग भी है। सेवा और त्याग का गुण ही समाज में किसी मनुष्य के मूल्य अथवा उपयोगिता का निर्धारण करता है। जिन मनुष्य के
जीवन में सेवा और त्याग है वहीं मनुष्य समाज में मूल्यवान भी है। जो देता है वही देवता है। कोई मनुष्य जब समाज को देता है तो देवता के रूप में स्व प्रतिष्ठित भी हो जाता है प्रभु कृपा करते हैं तो किसी किसी जीव के मन में सेवा का
भाव जागकर समाज सेवा का निमित्त बनाते है। मगर जब उस सेवा और त्याग का अभिमान मनुष्य के भीतर आ जाता है तो उसका वही गुण अभिमान में रूपांतरित हो कर जीवन का सबसे बड़ा अवगुण अथवा जीवन का सबसे बड़ा
रोग भी बन जाता है। मानव हो अथवा देवराज इंद्र, कर्तापन का अभिमान जिसके भी भीतर आता है प्रभु द्वारा उसके अभिमान भाव को एक दिन चूर चूर अवश्य कर दिया जाता है। सेवा और त्याग के साथ साथ विनम्रता का भाव ही
जीवन की सबसे बड़ी निरोगता है।
अतः स्वस्थ जीवन जीने के लिए विनम्र होकर जीना भी अनिवार्य हो जाता है।