कर्माबाई बचपन से ही अपने पिता जीवनराम को कृष्ण भगवान की पूजा करते हुए देखती थी

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यह कहानी है भगवान कृष्ण की प्रिय भक्त कर्माबाई की. कर्माबाई बचपन से ही अपने पिता जीवनराम को कृष्ण भगवान की पूजा करते हुए देखती थी. वह कभी भी कृष्ण भगवान भोग लगाये बिना. भोजन ग्रहण नहीं करते थे.

जब कर्माबाई 13 साल की थी. तब एक दिन जीवनराम को तीर्थ पुष्कर स्नान के लिए जाने की इच्छा हुई. साथ में उनकी पत्नी ने भी पुष्कर स्नान की इच्छा प्रकट की. जीवनराम अपनी बेटी को भी लेजाना चाहते थे.

लेकिन दुविधा यह थी की अगर वह सब घर बाहर गए तो. श्री भगवान कृष्ण को भोग लगाएगा कौन? . तब जीवनराम ने इस नित्यकर्म की जिम्मेदारी कर्माबाई को सौंपी और कहा की देखो बेटी कर्मा.

सुबह भगवान कृष्ण को भोग लगाने के पश्चात ही तुम भोजन ग्रहण करना. कर्मा ने भी अपने पिता की हां में हमी भरदी. अगले दिन सुबह कर्माबाई ने उठकर सबसे पहले. गुड और घी डालके बाजरे का खीचड़ा बनाया.

और भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने रख दिया और बोली भगवान मैं ने आपका भोग रख दिया है. आपको जब भूक लगे तब खालेना. तब तक मैं घर के काम पूरे कर लेती हूं. इतना कहकर कर्मा अपने घर कामो में जुट गई.

काम करते-करते बिच-बिच में आकार देखने पर जब कर्माको ज्ञात हुआ. की भगवान ने अभीतक खिचड़ा नहीं खाया है. तब उसे संदेह हुआ. की शायद खिचड़ी में घी और गुड कम है. इसलिए भगवान कृष्ण भोजन ग्रहण नहीं कर रहे है.

तभी कर्माबाई ने खिचड़ा में थोडा गुड और घी मिलया और मूर्ति के सामने बैठ गई. वह बोली भगवान मेरे पिताजी जब खिलाते है. तब तो आप खा लेते हो. तो अब क्यों नहीं खा रहे? .

और अभी तो पिताजी बाहर गए है. उन्हें आने में बहुत दिन लगेगे तब तक आपको भोग लगाने की जिम्मदारी मुझे दी गई है. इसलिए जब तक आप भोजन नहीं खायेंगे. मैं भी कुछ नहीं खाउंगी.

इस तरह जिद पर अड्डी नन्ही कर्मा की प्यारी बातों से कृष्ण भगवान का सिंहासन डौल गया और फिर मूर्ति मेसे आवाज आयी बेटी कर्मा तुमने पर्दा तो किया ही नहीं . तो मैं भोजन कैसे ग्रहण करूं.

तब कर्माबाई ने मूर्ति के आगे अपनी चुनरी का पर्दा किया और कुछ ही समय में कृष्ण मूर्ति के सामने रखी खिचड़ी की थाली खाली हो गई. अब कर्मा रोज सुबह सबसे पहले कृष्णा को बाजरे का खिचड़ा खिलाती और बादमे खुद भोजन ग्रहण करती.

कुछ दिनों बाद घर लौटने पर कर्मा के मां बाप भी कृष्ण की लीला देखकर दंग रह गए. इस तरह कर्माबाई ईश्वर कृष्ण की निस्सीम भक्त बन गई. अपने जीवन के अंतिम दिनों में कर्माबाई भगवान जग्गनाथ की नगरी जग्गनाथ पूरी में एक कुटिया में बस गई थी.

वहा पर एक दिन कर्माबाई की कुटिया के सामने एक तेजस्वी कांति वाला बालक आया और उसने कर्माबाई से कहा मुझे भूक लगी है मां खाना दो. उसवक्त भी कर्मा अपने भगवान कान्हा को खिचड़ा का भोग लगा रही थी.

कर्मा ने उस बालक को भी खिचड़ा खिलाया. उसके बाद से वही बालक हर रोज कर्मा के हाथ का खिचड़ा खाने आता था.यह सिल सिला कई वर्षों तक चलता रहा. वह बालक कोई और नहीं स्वयम जग्गनाथ भगवान थे.क्योंकि जिस दिन कर्माबाई दिहांत हो गया.

उस दिन जग्गनाथ भगवान की मूर्ति की आंखों-सी आंसू बह रहे थे. और उसी रात मंदिर के पुजारी के स्वप्न में जग्गनाथ भगवान आये. और अपने दुखी होने का करना बताया. की उनकी परम प्रिय भक्त कर्माबाई गोलोक सिधार गई है. मैं रोज सुबह उसके हाथ की खिचड़ी खाता था.

अब मुझे खिचड़ी कौन खिलायेगा. अगले दिनसे मंदिर के पुजारियों ने निर्णय लिया. भगवान को रोज बाजरे के खिचड़ा को भोग लगेगा और उस भोग का नाम दिया गया. कर्माबाई की खिचड़ी.

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