सहानुभूति प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक मानवीय गुण
करुणा प्रकृति प्रदत्त एक ऐसा मानवीय गुण है, जिसकी उपस्थिति में सत्य, अहिंसा, त्याग, दया, नेकदिली आदि अच्छे गुण स्वत: ही उत्पन्न हो जाते हैं। मानवता का विचार उन्हीं से आगे बढ़ता है। करुणा ही धर्म और मानवता की रक्षक है। साथ ही सबके प्रति दया की भावना जागृत होती है। करुणा और दया पर्यायवाची नहीं हैं, क्योंकि दयालु व्यक्ति कभी-कभी स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगता है। जबकि सहानुभूतिशील व्यक्ति में यह भावना नहीं होती। वह सभी को एक नजर से देखता है और बिना किसी स्वार्थ के सभी से सहानुभूति रखता है। करुणा का जन्म माँ के गर्भ से होता है। इसी सोच के साथ मां नौ महीने तक बच्चे का पालन-पोषण करती है। इसलिए प्रत्येक प्राणी में दया की भावना होती है।
लेकिन स्वार्थ और लालच से भरी दुनिया में करुणा और अन्य अच्छे गुण खो जाते हैं और जीवन दुख से भर जाता है। सहानुभूति लोगों की पीड़ा को कम करने के लिए भावनाओं का माध्यम है। इसके बिना न जीवन का लक्ष्य पूरा होता है, न साहित्य का, क्योंकि दोनों का लक्ष्य एक है-मानवता का कल्याण। महर्षि बाल्मीक ने न केवल दुनिया को करुणा की भावना से परिचित कराया बल्कि साहित्य को एक मजबूत आधार भी प्रदान किया। फिर उत्तररामचरित में महाकवि भवभूति ने भी सीता की पीड़ा को जीवंत स्वर दिया, जिसे सुनकर पत्थर भी रोने लगते हैं। उधर राम को भी कहना पड़ा कि लोगों से प्रेम ही क्या, जानकी को भी त्यागने में मुझे कोई दुःख नहीं होगा। ऐसा कहने से राम की सार्वजनिक पीड़ा का स्वर तीव्र हो गया। यह भी राम की करुणा का ही परिणाम था। इसलिए उन्हें यह घोषित करना पड़ा कि करुणा ही एकमात्र रस है जो सभी रसों का मूल है