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प्रात: उठते ही सर्वप्रथम ये मंत्र पढ़ें, लाभ होगा, प्रार्थना के फायदे

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प्रातः काल उठते ही सर्व प्रथम क्या करना चाहिए इसके लिए हिंदू धर्म में बहुत कुछ बताया गया है यहां उठते ही सर्वप्रथम क्या करना चाहिए इसकी जानकारी प्रस्तुत है।

सबसे पहले अपने घर में सोने के स्थान पर भगवान का सुंदर सा फोटो लगाएं ताकि उठते ही सबसे पहले वहीं नजर आएं।

उठते ही हमारी आंखें नींद से भरी होती हैं। ऐसे में यदि दूर की वस्तु या रोशनी हमारी दृष्टि पर पड़ेगी तो आंखों पर कुप्रभाव पड़ेगा। इसलिए जरूरी है की उठते ही हम भगवान के चित्र का दर्शन करें। प्रातः दिखने वाली आकृति का दिन में प्रभाव अवश्य होता है।

भगवान का दर्शन करने के पूर्व प्रातःकाल जागते ही सबसे पहले दोनों हाथों की हथेलियों के दर्शन का विधान बताया गया है। आपका दिन शुभ और सफल हो इसके लिए हथेली और उसके बाद भगवान का दर्शन करें।

यह मंत्र पढ़ें : हाथों की हथेली का दर्शन करके यह मंत्र पढ़ना चाहिए- कराग्रे वसति लक्ष्मीः, कर मध्ये सरस्वती। करमूले तू ब्राह्म, प्रभाते कर दर्शनम्‌‌।।…(कहीं-कहीं ‘ब्रह्म’ के स्थान पर ‘गोविन्दः या ‘ब्रह्मां’ का प्रयोग किया जाता है।)

भावार्थ : हथेलियों के अग्रभाग में भगवती लक्ष्मी, मध्य भाग में विद्यादात्री सरस्वती और मूल भाग में भगवान गोविन्द (ब्रह्मा) का निवास है। मैं अपनी हथेलियों में इनका दर्शन करता हूं।

यह मंत्र उच्चारित कर हथेलियों को परस्पर घर्षण करके उन्हें अपने चेहरे पर लगाना चाहिए।

हिन्दू मंदिर में जाने के नियम
मंदिर समय : हिन्दू मंदिर में जाने का समय होता है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। संधिकाल में ही संध्या वंदना की जाती है। वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्‍याकाल- उक्त 2 समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

दोपहर 12 से अपराह्न 4 बजे तक मंदिर में जाना, पूजा, आरती और प्रार्थना आदि करना निषेध माना गया है अर्थात प्रात:काल से 11 बजे के पूर्व मंदिर होकर आ जाएं या फिर अपराह्नकाल में 4 बजे के बाद मंदिर जाएं।धरती के दो छोर हैं- एक उत्तरी ध्रुव और दूसरा दक्षिणी ध्रुव। उत्तर में मुख करके पूजा या प्रार्थना की जाती है इसलिए प्राचीन मंदिर सभी मंदिरों के द्वार उत्तर में होते थे। हमारे प्राचीन मंदिर वास्तुशास्त्रियों ने ढूंढ-ढूंढकर धरती पर ऊर्जा के सकारात्मक केंद्र ढूंढे और वहां मंदिर बनाए।

मंदिर में शिखर होते हैं। शिखर की भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं। व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे-धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है।

पुराने मंदिर सभी धरती के धनात्मक (पॉजीटिव) ऊर्जा के केंद्र हैं। ये मंदिर आकाशीय ऊर्जा के केंद्र में स्थित हैं। उदाहरणार्थ उज्जैन का महाकाल मंदिर कर्क पर स्थित है। ऐसे धनात्मक ऊर्जा के केंद्र पर जब व्यक्ति मंदिर में नंगे पैर जाता है तो इससे उसका शरीर अर्थ हो जाता है और उसमें एक ऊर्जा प्रवाह दौड़ने लगता है। वह व्यक्ति जब मूर्ति के जब हाथ जोड़ता है तो शरीर का ऊर्जा चक्र चलने लगता है। जब वह व्यक्ति सिर झुकाता है तो मूर्ति से परावर्तित होने वाली पृथ्वी और आकाशीय तरंगें मस्तक पर पड़ती हैं और मस्तिष्क पर मौजूद आज्ञा चक्र पर असर डालती हैं। इससे शांति मिलती है तथा सकारात्मक विचार आते हैं जिससे दुख-दर्द कम होते हैं और भविष्य उज्ज्वल होता है।

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पूजा : पूजा एक रासायनिक क्रिया है। इससे मंदिर के भीतर वातावरण की पीएच वैल्यू (तरल पदार्थ नापने की इकाई) कम हो जाती है जिससे व्यक्ति की पीएच वैल्यू पर असर पड़ता है। यह आयनिक क्रिया है, जो शारीरिक रसायन को बदल देती है। यह क्रिया बीमारियों को ठीक करने में सहायक होती है। दवाइयों से भी यही क्रिया कराई जाती है, जो मंदिर जाने से होती है।

प्रार्थना : प्रार्थना में शक्ति होती है। प्रार्थना करने वाला व्यक्ति मंदिर के ईथर माध्यम से जुड़कर अपनी बात ईश्वर तक पहुंचा सकता है। दूसरा यह कि प्रार्थना करने से मन में विश्‍वास और सकारात्मक भाव जाग्रत होते हैं, जो जीवन के विकास और सफलता के अत्यंत जरूरी हैं।

निषिद्ध आचरण : शास्त्रों में जो मना किया गया है उसे करना पाप और कर्म को बिगाड़ने माना गया है। यहां प्रस्तुत हैं कुछ प्रमुख आचरण जिन्हें मंदिर में नहीं करना चाहिए अन्यथा आपकी प्रार्थना या पूजा निष्फल तो होती ही है, साथ ही आप देवताओं की नजरों में गिर जाते हो।

1. मंदिर में बगैर आचमन क्रिया के नहीं जाना चाहिए। पवित्रता का विशेष ध्यान रखें। कई लोग मोजे पहनकर भी चले जाते हैं।

2. मंदिर में किसी भी प्रकार का वार्तालाप वर्जित माना गया है।

3. मंदिर में कभी भी मूर्ति के ठीक सामने खड़े नहीं होते।

4. दुर्गा और हनुमान मंदिर में सिर ढंककर जाते हैं।

5. मंदिर में जाने का समय- मंदिर में संध्यावंदन के समय जाते हैं। 12 से 4 के बीच कभी मंदिर नहीं जाते।

6. भजन-कीर्तन आदि के दौरान किसी भी भगवान का वेश बनाकर खुद की पूजा करवाना वर्जित।

इस तरह मंदिर के कई नियम हैं जिनका पालन करना चाहिए।
संध्योपासना के 5 प्रकार हैं- (1) प्रार्थना, (2) ध्यान, (3) कीर्तन, (4) यज्ञ और (5) पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। लेकिन इन पांचों में किसका ज्यादा महत्व है, यह भी जानना जरूरी है।

प्रार्थना का प्रचलन सभी धर्मों में है, लेकिन प्रार्थना करने के तरीके अलग-अलग हैं। तरीके कैसे भी हों जरूरी है प्रार्थना करना। प्रार्थना योग भी अपने आप में एक अलग ही योग है, लेकिन कुछ लोग इसे योग के तप और ईश्वर प्राणिधान का हिस्सा मानते हैं। प्रार्थना को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने की एक क्रिया भी माना जाता है।

कैसे करें प्रार्थना : ईश्वर, भगवान, देवी-देवता या प्रकृति के समक्ष प्रार्थना करने से मन और तन को शांति मिलती है। मंदिर, घर या किसी एकांत स्थान पर खड़े होकर या फिर ध्यान मुद्रा में बैठकर दोनों हाथों को नमस्कार मुद्रा में ले आएं। अब मन-मस्तिष्क को एकदम शांत और शरीर को पूर्णत: शिथिल कर लें और आंखें बद कर अपना संपूर्ण ध्यान अपने ईष्ट पर लगाएं। 15 मिनट तक एकदम शांत इसी मुद्रा में रहें तथा सांस की क्रिया सामान्य कर दें।

भक्ति के प्रकार : 1.आर्त, 2.जिज्ञासु, 3.अर्थार्थी और 4.ज्ञानी
प्रार्थना के प्रकार : 1.आत्मनिवेदन, 2.नामस्मरण, 3.वंदन और 4. संस्कृत भाषा में समूह गान।

प्रार्थना के फायदे : प्रार्थना में मन से जो भी मांगा जाता है वह फलित होता है। ईश्वर प्रार्थना को ‘संध्या वंदन’ भी कहते हैं। संध्या वंदन ही प्रार्थना है। यह आरती, जप, पूजा या पाठ, तंत्र, मंत्र आदि क्रियाकांड से भिन्न और सर्वश्रेष्ठ है।

प्रार्थना से मन स्थिर और शांत रहता है। इससे क्रोध पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इससे स्मरण शक्ति और चेहरे की चमक बढ़ जाती है। प्रतिदिन इसी तरह 15-20 मिनट प्रार्थना करने से व्यक्ति अपने आराध्य से जुड़ने लगता है और धीरे-धीरे उसके सारे संकट समाप्त होने लगते हैं। प्रार्थना से मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है तथा शरीर निरोगी बनता है।

अंत में ध्यान.
ध्यान का अर्थ : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है। आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है।

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