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बच्चे के लिए कहानी : महादान

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दीपक एक अच्छे खातेपीते घराने का बहुत ही होनहार बच्चा था लेकिन उसे एक धुन रहती थी कि उसका जन्म दिन बड़ी धूमधाम से मनाया जाये। उसके माता-पिता यद्यपि उसका जन्म दिन काफी हर्षोल्लास के साथ मनाते थे लेकिन फिर भी उसके मन में यह बात रहती थी कि और ज़्यादा खर्चा हो तथा किसी बड़े भारी होटल में पार्टी वगैरा हो। इस अवसर पर दीपक अपने सभी मित्रों को आमंत्रित करता था। तथा उनके साथ मिलकर बड़ी धूमधाम से अपना जन्म दिन मनाता था।

दीपक अपने सभी साथियों को अपने जन्म दिन पर आमंत्रित करता था लेकिन ‘जीवन’ जो उसका सहपाठी था उसे आमंत्रित करना वह सदैव ही भूल जाता था। ‘जीवन’ के सिर्फ पिता का ही निधन नहीं हो गया था बल्कि एक हाथ न होने के कारण वह विकलांग भी था। परिवार में आमदनी का अच्छा सिलसिला न होने के कारण उसके जीवन की सामान्य आवश्यकतायें भी पूरी नहीं होती थी। ‘जीवन’ के साथी प्रायः जीवन की इसलिए उपेक्षा कर देते थे चूंकि उसका एक हाथ नहीं था। या जो उसके कपड़े वगैरा होते थे वे बहुत ही साधारण और गरीब बच्चों के जैसे होते थे।

दीपक यद्यपि मन का बुरा नहीं था लेकिन अनजाने में वह भी ‘जीवन’ की उपेक्षा कर देता था। जीवन अपने मन की बात किसी को भी नहीं बताता था लेकिन उसके मन में जो एक तूफान उठता था वह उसे अक्सर पेरशान करता रहता था। उसके मन की पीढ़ा उस समय और भी ज़्यादा बढ़ जाती थी जब उसे साथी लोगों से उपेक्षा मिलती थीं। जीवन के सामने जो मनोवैज्ञानिक समस्या थी जीवन आये दिन उसका समाधान खोजने की कोशिश करता था लेकिन विवश्ताओं की ढयोढ़ी पर आकर वह अकेला ही रह जाता था।

पढ़ने लिखने में जीवन यद्यपि होशियार था लेकिन उतना नहीं जितना होना चाहिए। जीवन ने निश्चय कर लिया कि उसे पढ़ने लिखने में इतना आगे बढ़ जाना है कि कोई उसे किसी भी प्रकार हीन न समझ सके। इसी मानसिकता में बंधकर जीवन ने स्वयं को ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ाई को समर्पित कर दिया जिसका परिणाम यह निकला कि वह कक्षा का सर्वोत्तम और सबसे योग्य छात्र बन गया। सभी दूसरे छात्र उससे विभिन्न शैक्षणिक सहयोग लेने के लिए उसके आसपास मंडराने लगे।

हर वर्ष की भांति पुनः दीपक का जन्म दिन आया। लेकिन इस बार दीपक का दृष्टिकोण पूरी तरह बदल चुका था। उसे रह रहकर अपने मनोवैज्ञानिक अपराधों के ऊपर गूंझल आ रही थी कि उसने अपने विगत जन्म दिवसों पर जीवन को आमंत्रित क्यों नहीं किया? दीपक ने अपने अपराध और अपने मनो भाव को अपने पिता जी के सम्मुख रखा। दीपक के पिता बेहद सुलझे हुये इंसान थे। उन्होंने तत्काल एक पत्र लिखा और लिफाफे में बंद करके दीपक के हाथों ‘जीवन’ की माता जी को भिजवा दिया।

जीवन की माता जी ने जब पत्र पढ़ा तो उनकी आंखों में हर्ष के आंसू आ गये। चूंकि ‘दीपक के पिता ने लिखा था कि अपने बेटे दीपक का जन्म दिन आज वे इस रुप में मना रहे हैं कि ‘जीवन’ की पढ़ाई की सारी व्यवस्थायें तो अपने ऊपर ले ही रहे हैं साथ में जीवन के लिए कृतिम हाथ भी बनवा रहे हैं। ताकि वह और अधिक कुशाग्रता से अपने कार्यों को कर सके।’

दीपक को जब यह सब मालूम हुआ तो वह खुशी से फूला नहीं समाया। इस बार दीपक ने जाहिर तौर पर यद्यपि कोई खर्चा अपने जन्म दिन पर नहीं किया था लेकिन दीपक के पिता की सुलझी बुद्धि के कारण जो खुशी दीपक महसूस कर रहा था वह बेमिसाल थी। दीपक ने कभी भी जीवन को यह कहने को कोशिश नहीं की कि उसके पिता उसे सहयोग करके उसके ऊपर कोई अहसान कर रहे हैं बल्कि उसने तो अब यह क्रम बना लिया अपना हर जन्म दिन उसे ऐसे ही किसी न किसी लोकोपकारी कार्य को करके मनाना है।

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